
अष्टांगहृदय संहिता पर आधारित 'ऋतुचर्या' अध्याय के श्लोकों की विस्तृत व्याख्या और मौसमी दिनचर्या (आहार-विहार) का विवरण।
Tue, Nov 25, 2025यह गाइड ऋतुओं के अनुसार बल, जठराग्नि और दोषों की स्थिति का वर्णन करती है, जिसमें हेमंत, शिशिर, वसंत, ग्रीष्म, वर्षा और शरद ऋतुओं के लिए श्लोक-आधारित आहार-विहार का विस्तृत उल्लेख है।
यह अध्याय ‘ऋतुचर्या’ (मौसमी दिनचर्या) के विषय में है, जो ऋतुओं के अनुसार आहार-विहार के सेवन का प्रतिपादन करता है, ताकि शरीर का बल और स्वास्थ्य बना रहे।
परिभाषा (श्लोक 1):वर्ष में दो-दो महीनों के क्रम से (माघ मास से शुरू होकर) छह ऋतुएँ होती हैं:
प्रत्येक ऋतु दो महीनों तक चलती है।
| ऋतु (Season) | हिंदी महीना (Hindu Calendar) | अंग्रेजी महीना (Gregorian Calendar) |
|---|---|---|
| शिशिर (Shishira) | माघ, फाल्गुन | मध्य जनवरी से मध्य मार्च |
| वसंत (Vasanta) | चैत्र, वैशाख | मध्य मार्च से मध्य मई |
| ग्रीष्म (Grishma) | ज्येष्ठ, आषाढ़ | मध्य मई से मध्य जुलाई |
| वर्षा (Varsha) | श्रावण, भाद्रपद | मध्य जुलाई से मध्य सितंबर |
| शरद (Sharad) | आश्विन, कार्तिक | मध्य सितंबर से मध्य नवंबर |
| हेमंत (Hemanta) | मार्गशीर्ष, पौष | मध्य नवंबर से मध्य जनवरी |
छह ऋतुओं को दो अयन (उत्तरायण और दक्षिणायन) में बाँटा गया है, जिनका शरीर के बल पर सीधा प्रभाव पड़ता है।
| अयन का नाम | ऋतुएँ | प्रभाव की प्रकृति | बल पर प्रभाव | प्रबल रस (Dominant Tastes) |
|---|---|---|---|---|
| उत्तरायण (आदान काल) | शिशिर, वसंत, ग्रीष्म | आग्नेय (Fiery/Harsh) | बल का ह्रास (प्रतिदिन बल क्षीण होता है) | तिक्त, कषाय, कटु |
| दक्षिणायन (विसर्ग काल) | वर्षा, शरद, हेमंत | सौम्य (Cooling/Gentle) | बल की वृद्धि (बल वापस आता है) | अम्ल, लवण, मधुर |
शरीर का बल और जठराग्नि (पाचन अग्नि) ऋतुओं के अनुसार परिवर्तित होते हैं:
| ऋतु | बल (Strength) | जठराग्नि (Digestive Fire - अनल) |
|---|---|---|
| हेमंत (शीत काल) | श्रेष्ठ (उच्चतम) | प्रबल (Digestive Fire is Strongest) |
| वर्षा (वृष्टि काल) | अल्प (निम्नतम) | मंद (Digestive Fire is Weakest) |
| शरद, वसंत, ग्रीष्म | मध्यम | मध्यम |
शीत (हेमंत) के कारण शरीर में गर्मी (ऊष्मा) का संरोध (अवरोध) होता है, जिससे जठराग्नि प्रबल हो जाती है। यदि इसे पर्याप्त ईंधन (भोजन) न मिले, तो वायु से प्रेरित यह अग्नि शरीर के धातुओं (ऊतकों) को पचाने लगती है।
नीचे दी गई तालिका में छहों ऋतुओं के लिए आहार (क्या खाएं) और विहार (क्या करें/क्या टालें) का विस्तृत विवरण है:
| वर्ग | हेमंत चर्या (श्लोक 8-16) | शिशिर चर्या (श्लोक 17) |
|---|---|---|
| आहार (Diet) | सेवन करें: स्वादु (मीठा), अम्ल (खट्टा), लवण (नमकीन) रस। स्निग्ध रस (चिकनाई युक्त), मांस रस, गुड़, साफ शराब (अच्छसुरा), सुरा (शराब), गेहूँ/उड़द के उत्पाद, गन्ने के उत्पाद, दूध की विकृतियाँ (जैसे घी, दही), नया अन्न (नवमन्न), वसा, तेल। | हेमंत जैसा ही (क्योंकि यह भी अत्यधिक शीत काल है)। |
| विहार (Lifestyle) | करें: * अभ्यंग: वातघ्न (वात को शांत करने वाले) तेलों से। * मूर्ध्नि तैलं: सिर पर तेल लगाना। * विमर्दनम्: मालिश। * नियुद्धं: कुशल लोगों के साथ कुश्ती या व्यायाम। * स्नान: कसैले पदार्थों से तेल हटाकर। * लेप/धूपन: कुमकुम और दर्प से युक्त लेप लगाना, अगरु से धूपन। * शयन/वस्त्र: ऊनी, रेशमी, कौशेय आदि गर्म वस्त्रों से ढके, गर्म स्वभाव वाले बिस्तरों पर सोना। * ताप: धूप, अंगारों की गर्मी, स्वेदन (पसीना)। * निवास: अंगारों से गर्म (अङ्गारतापसन्तप्त) और भूमि के नीचे (गर्भभूवेश्म) के कमरों में रहना। * स्त्री संग: पीवर (स्थूल) जांघों और स्तनों वाली, समदा (मद से युक्त) और उष्ण (गर्म) शरीर वाली स्त्रियों का संग करना। | विशेषतः: इस ऋतु में शीत और रूखापन (आदान काल के कारण) अधिक होता है, इसलिए हेमन्त की विधि को विशेष रूप से अपनाना चाहिए। |
| त्याज्य (Avoid) | * बुभुक्षित रहना (भूखा न रहें) — लंबी रातों के कारण सुबह उठते ही भूख लगती है, इसलिए अवश्य भोजन करें। | * कोई विशिष्ट त्याग का उल्लेख नहीं, लेकिन रूखे और ठंडे आहार/विहार से बचें। |
| वर्ग | वसंत चर्या (श्लोक 18-25) |
|---|---|
| दोष स्थिति | शिशिर में संचित हुआ कफ, वसंत में सूर्य की किरणों से पिघलकर जठराग्नि को मंद कर देता है और रोग उत्पन्न करता है, अतः इसे शीघ्र जीतना चाहिए। |
| आहार (Diet) | सेवन करें: लघु (हल्का), रूक्ष (रूखा) भोजन। पुराना जौ-गेहूँ, शहद (क्षौद्र), जांगल मांस का शूल्य (शूल्यभुक् - भुना हुआ)। आम्र रस (सहकाररसोन्मिश्रान) का सेवन। * पेय: आसव, अरिष्ट, सीधु, मार्द्वीक, माधवादि मद्य (जो निर्गद-दोषरहित हों)। * जल: अदरक का पानी (शृङ्गबेराम्बु), साराम्बु, मध्वम्बु। |
| विहार (Lifestyle) | करें: * शोधन: तीक्ष्ण वमन और नस्य आदि शुद्धिकर्म द्वारा कफ को बाहर निकालना। * व्यायाम: व्यायाम, उद्वर्तन (सूखे पाउडर की मालिश), और आघात (मर्दन) द्वारा कफ को जीतना। * अनुलेप: स्नान के बाद कपूर, चंदन, अगरु, कुमकुम का लेप लगाना। * दिनचर्या: मनोहारी स्थानों (वन, वाटिका, जहाँ कोयलें बोल रही हों) में गोष्ठी (चर्चा) करते हुए दोपहर बिताना। |
| त्याज्य (Avoid) | गुरु (भारी), शीत (ठंडा), दिवास्वप्न (दिन में सोना), स्निग्ध (चिकना), अम्ल (खट्टा), मधुर (मीठा) भोजन। |
| वर्ग | ग्रीष्म चर्या (श्लोक 26-41) |
|---|---|
| दोष स्थिति | तीक्ष्ण सूर्य की किरणें (तीक्ष्णांशुः) श्लेष्मा (कफ) को प्रतिदिन क्षीण करती हैं, जिससे वायु (वात) की वृद्धि होती है। |
| आहार (Diet) | सेवन करें: केवल मधुर (मीठा) रस। लघु (हल्का), स्निग्ध (चिकना), हिम (ठंडा), द्रव (तरल) अन्न। * अन्य: सुशीतल जल से सींचे हुए अंग वाला व्यक्ति शक्कर के साथ सत्तू (सक्तून्) चाटे। * दूध/पेय: ससितं माहिषं क्षीरं (शक्कर के साथ भैंस का दूध), पाटला (पाटल पुष्प) से सुवासित, कपूर से युक्त, सुशीतल जल। * अन्य: जांगल मांस के साथ शालि चावल, रसाला, रागखाण्डव (चटनी/शर्बत)। * मद्य: मद्यपान न करें; यदि करें तो स्वल्प (बहुत कम) और उसमें सुबहु वारि (बहुत अधिक पानी) मिलाएँ। |
| विहार (Lifestyle) | करें: * शयन: केले के पत्ते, कमल, मृणाल से बने कोमल बिस्तरों पर, या धारागृह (Shower room) में दोपहर में सोना। * रात्रि: चाँदनी रात में छत पर शयन, शीतल पदार्थ खाना। * सेवा: जलार्द्र (पानी से गीले) पंखे, कमल की पंखुड़ियाँ, कर्पूर, चंदन, मनोहर कलालाप वाले बच्चे/पक्षी। * वस्त्र: सूक्ष्म (बारीक/हल्के) वस्त्र। |
| त्याज्य (Avoid) | पटु (नमकीन), कटु (तीखा), अम्ल (खट्टा) रस। व्यायाम (Exercise), सूर्य किरणें (धूप)। |
| वर्ग | वर्षा चर्या (श्लोक 42-48) |
|---|---|
| दोष स्थिति | आदान काल से कमज़ोर हुए शरीर वालों की अग्नि मंद हो जाती है। दोष, आकाश में लटके हुए बादलों (अम्बुलम्बाम्बुदे) के कारण, ठंडी हवा, भूमि की भाप, अम्ल पाक और मलीन जल से दूषित हो जाते हैं। |
| आहार (Diet) | सेवन करें: साधारण (संतुलित) भोजन, जो ऊष्मा (अग्नि) को बढ़ाने वाला हो। * पुराना धान्य (अनाज), पके हुए रस (यूष), जांगल मांस, मध्वरिष्ट (पुरानी अरिष्ट)। * पेय: सौवर्चल नमक से युक्त मस्तु (दही का पानी) या पञ्चकोलावचूर्णित (पाँच पाचन औषधियों का चूर्ण)। * जल: दिव्य (वर्षा का), कूप का, या उबालकर ठंडा किया हुआ जल। * अतिदुर्दिने: अत्यधिक खराब मौसम में, व्यक्त (स्पष्ट) अम्ल, लवण, स्नेह (चिकनाई) से युक्त, खूब सूखा (संशुष्कं), शहद से युक्त और लघु भोजन करें। |
| विहार (Lifestyle) | करें: * शोधन: शुद्ध तनु वाले को आस्थापन वस्ति (शोधन) करना चाहिए। * विहार: भूमि पर न चलना (अपादचारी), सुगन्धित, धूपित वस्त्र पहनना। * निवास: छत के ऊपर (हर्म्यपृष्ठे), जहाँ भाप (बाष्प) और ठंडी फुहार (शीतशीकर) न हो। |
| त्याज्य (Avoid) | नदी का पानी, मन्थ (मट्ठा), दिन में सोना (अहःस्वप्न), आयास (अधिक श्रम), आतप (धूप)। |
| वर्ग | शरद चर्या (श्लोक 49-55) |
|---|---|
| दोष स्थिति | वर्षा के ठंडेपन के आदी अंगों का अचानक सूर्य की किरणों से तप्त होने पर, वर्षा ऋतु में संचित हुआ पित्त शरद ऋतु में कुपित (Aggravate) हो जाता है। |
| आहार (Diet) | सेवन करें: तिक्त (कड़वा), स्वादु (मीठा), कषाय (कसैला) रस। * अन्य: शालि चावल, मूंग (मुद्ग), मिश्री (सिता), आँवला (धात्री), परवल (पटोल), शहद, जांगल मांस। |
| विहार (Lifestyle) | करें: * शोधन: पित्त जीतने के लिए तिक्त घृत (Bitter Ghee), विरेचन (Purgation), रक्तमोक्षण (Bloodletting)। * जल: हंसोदक (Hansodaka) - वह निर्मल जल जो दिन में सूर्य की किरणों से तप्त होकर और रात में चंद्रमा की किरणों से शीतल होकर अगस्त्य तारे के उदय से निर्विष हो गया हो। यह अमृतोपम होता है। * विहार: चन्दन, कपूर, मोती के हार से सजे, चाँदनी रात में छत पर बैठना। |
| त्याज्य (Avoid) | तुषार (पाला/ओस), क्षार (क्षारीय), सौहित्य (अत्यधिक तृप्ति), दही, तेल, वसा, आतप (धूप), तीक्ष्ण मद्य, दिवास्वप्न (दिन में सोना), पुरोवात (सामने से आने वाली हवा)। |
ऋतुओं में रसों का सारांश (श्लोक 56-57)
यह अंतिम श्लोक पूरे ऋतुचर्या का सार प्रस्तुत करता है:
| ऋतु | सेवन योग्य रस |
|---|---|
| शीत (हेमंत/शिशिर) | आद्यांस्त्रीन्: मधुर (मीठा), अम्ल (खट्टा), लवण (नमकीन) |
| वर्षासु (वर्षा) | आद्यांस्त्रीन्: मधुर, अम्ल, लवण |
| वसन्ते (वसंत) | अन्त्यान्: कटु (तीखा), तिक्त (कड़वा), कषाय (कसैला) |
| निदाघे (ग्रीष्म) | स्वादुं: केवल मधुर (मीठा) |
| शरदि (शरद) | स्वादुतिक्तकषायकान्: मधुर, तिक्त, कषाय |
| नियम | अन्न-पान रूक्ष (रूखा) - शरद और वसंत में। शीत (ठंडा) - ग्रीष्म और वर्षा में। बाकी समय इसके विपरीत (स्निग्ध, उष्ण) होना चाहिए। |
परिभाषा: दो ऋतुओं के अंतिम सात दिन और अगली ऋतु के पहले सात दिन को ऋतुसंधि कहते हैं (अर्थात् कुल 14 दिन)। नियम:
चेतावनी: सहसा (अचानक) त्यागने या अपनाने से असात्म्यज रोग (वे रोग जो अनुकूलता न होने से उत्पन्न होते हैं) हो सकते हैं।